सर गुज़िश्त आज़ाद बख्त बादशाह की
एक बद्र रु नज़र
पड़ी की मुआफ़िक आदमी की आने की है मगर जाली आहनी उसके दाहने पर जड़ी है। यह इरादा किया
की उस बद्र रो की राह चलू। कपडे बदन से उतारे और उस गन्दी कीचड़ में उतरा। हज़ार मेहनत से उस जाली को तोड़ा और संडास राह से चोर महल में गया। औरतो जैसा लिबास पहन कर ,हर तरफ देखने
भालने लगा। एक मकान से आवाज़ मेरे कान में पड़ी जैसे कोई मन्नत
कर रहा हो। आगे जाकर देखा तो मलका है अजब हालत से रोती है और नाक खिसनी कर रही है और खुदा से दुआ मांगती है की सदक़े अपने रसूल के और उसकी आल पाक के ,मुझे उस कफरस्तान से निजात दे. और जिस शख्स ने मुझे इस्लाम की राह
बताई है ,उससे एक बार खैरियत से मिला। मैं
दौड़ते कर पाव पर गिर पड़ा। मलका ने मुझे गले
लगा लिया। हम दोनों पर एकदम बेहोशी का आलम
हो गया। जब हवास बजा हुए मैंने कैफियत मलका
से पूछी। बोली : जब शाह बंदर से सब
लड़कियों को किनारे पर ले गया ,खुदा से यही
दुआ मांगती थी की कही मेरा राज़ फाश न हो और
मैं पहचानी न जाऊं और तेरी जान आफत न आये। वे ऐसा सत्तर है की हरगिज़ किसी ने न दरयाफ्त किया की यह मलका है। शाह बनदर हर एक को बा नज़र खरीदारी देखता था। जब मेरी बारी
हुई ,मुझे पसंद कर कर पाने घर में चुपके भेज दिया औरो को बादशाह के हुज़ूर गुज़ारना।
मेरे बाप ने जब इनमे मुझे न देखा ,सबको रुखसत किया। यह सब परपंच मेरे वास्ते किया था। अब यु मशहूर किया है की बादशाह ज़ादी बहुत बीमार है। अगर मैं ज़ाहिर न हुई तो कोई दिन में मेरे मरने की खबर सारे मुल्क में उड़ेगी ,तो बदनामी बादशाह की न हुए। लेकिन अब इस अज़ाब में हु की शाह बन्दर मुझसे और इरादा दिल में रखता है और हमेशा साथ सोने को बुलाता है। मैं राज़ी नहीं होती अज़ बस की चाहता है ,अब तक मेरी रजा मंदी मंज़ूर है ,लिहाज़ा चुप हो रहता है। पर हैरान हु ,इस तरह कहा तक निभेगी। सो मैंने भी जी में यह ठहराया है की जब मुझसे कुछ और क़स्द करेगा ,तो मैं अपनी जान दूंगी और मर रहूंगी। लेकिन तेरे मिलने से एक और तदबीर दिल में सूझी है ,खुदा चाहे तो सिवाए इस फ़िक्र के दूसरी कोई तरह मुख्लिसि की नज़र नहीं आती।
मैंने कहा : फरमाओ तो वह कौन सी तदबीर है ? कहने लगी : अगर तो मेहनत करे तो हो सके। मैंने कहा : मैं फरमा बरदार हु ,अगर हुक्म करो तो जलती आग में कूद जाऊं। और सीढ़ी पाव तो तुम्हारी खातिर आसमान पर चला जाऊं. जो कुछ फरमाओ सो बजा लाऊँ। मलका ने कहा : तो बड़े बुत खाने में जा। और जिस जगह जूतिया उतारते है ,वहा एक सियाह टाट पड़ा रहता है। इस मुल्क की रस्म है की जो कोई मुफ़लिस और मोहताज हो जाता है ,इस जगह वह टाट ओढ़ कर बैठता है ,यहाँ के लोग जो ज़ियारत को जाते है। अपने अपने मक़दूर के उसे देते है।
जब दो चार दिन में माल जमा होता है ,पण्डे एक खिलअत बड़े बुत कि सरकार से दे कर उसे रुखसत करते है ,वह तो नगर हो कर चला जाता है। कोई नहीं मालूम करता की यह कौन था। तू भी जाकर उस प्लास के नीचे बैठ और हाथ मुंह अपना खूब तरह छिपा ले और किसी से न बोल। बाद तीन दिन के ब्राह्मण और बुतपरस्त हर चंद तुझे खिलअत दे कर रुखसत करे ,तो वहा से हरगिज़ न उठ। जब निहायत मिन्नत करे ,तब तो बोलियों की मुझे रुपया पैसा कुछ दरकार नहीं ,मैं माल का भूका नहीं ,मैं मज़लूम हु ,फरियाद को आया हु। अगर बरह्मणो की माता मेरी दाद दे तो बेहतर। नहीं ,बड़ा बुत मेरा इंसाफ करेगा ,और उस ज़ालिम से यही बड़ा बुत मेरी फरियाद को पहुंचेगा। जब तक वह माँ ब्राहम्णो की आप तेरे पास न आये ,बेहतर है की कोई मनाये ,तो राज़ी न हो जाना। आखिर लाचार हो कर वह खुद तेरे नज़दीक आएगी। वह बहुत बूढ़ी है ,दो सौ चालीस बरस की उम्र है ,और छत्तीस बेटे उसके जने हुए बुतखाने के सरदार है। और उसका बड़े बुत के पास बड़ा दर्जा है। इस सबब उसका इतना बड़ा हुक्म है की जितने छोटे बड़े इस मुल्क के है ,इसके कहने को अपनी सआदत जानते है। जो वह फरमाती है ,बा सर चश्म मानते है। उसका दामन पकड़ कर कहना : ए माई ! अगर मुझ मज़लूम मुसाफिर का इंसाफ ज़ालिम से न करेगी ,तो मैं बड़े बुत की खिदमत में टक्कर मरूंगा ,आखिर वह रहम खा कर तुझसे मेरी सिफारिश करेगा।
जब वह तेरा अहवाल पूछे तो कहना की मैं अजम का रहने वाला हु। बड़े बुत की ज़ियारत की खातिर और तुम्हारी अदालत सुन कर काले कोसो से यहाँ आया हु। कई दिनों आराम से रहा। मेरी बीबी भी मेरे साथ आयी थी। वह जवान है और सूरत व शक्ल भी अच्छी है और आंख नाक से दरुस्त है। मालूम नहीं की शाह बन्दर ने उसे क्यू कर देखा बा ज़ोर मुझसे छीन कर अपने घर में डाल दिया। और हम मुसलमनो का यह क़ायदा है की जो न महरम औरत को उनकी देखे या छीन ले ,तो वाजिब है की उसको जिस तरह हो ,मार डाले और अपनी जूरो को लेले और नहीं तो खाना पीना छोड़ दे। क्यू की जब तलक वह जीता रहे ,वह औरत खाविंद पर हराम है। अब यहाँ लाचार हो कर आया हु ,देखिये तुम क्या इंसाफ करती हो। जब मलका ने मुझे यह सब सीखा पढ़ा दिया। मैं रुखसत हो ,इसी तबदान की राह से निकला और वह जाली आहनी फिर लगा दी।
सुबह होते बुतखाने में गया और सियाह प्लास ओढ़ कर बैठा। तीन रोज़ इतना रुपया और अशर्फी और कपड़ा मेरे नज़दीक जमा हुआ की अंबार लग गया। चौथे दिन पण्डे भजन करते और गाते बजाते खिलअत लिए मेरे पास आये और रुखसत करने लगे। मैं राज़ी न हुआ और दुहाई बड़े बुत की दी की मैं गुदायी करने नहीं आया ,बल्कि इंसाफ के लिए बड़े बुत और ब्राह्मणो की माता के पास आया हूँ। जब तलक अपनी दाद न पाउँगा जाऊंगा। वे सुन कर पीर ज़ाल के रु बा रु गए और मेरा अहवाल बयान किया। बाद उसके एक चुबे आया और मेरे से कहने लगा की चल। माता बुलाती है मैं वही टाट काला सर से पाव तक ओढ़ कर दिहरे में गया। देखता हु की एक जड़ाऊ सिंघासन पर ,जिस में लाल ,अल्मास और मोती ,मूंगा लगा हुआ है ,बड़ा बुत बैठा है। और एक कुर्सी ज़ररी पर फर्श माक़ूल बिछा है ,उस पर एक बुढ़िया सियाह पोश ,मसनद पर तकिये लगाए और दो लड़के दस बारह बरस के एक दाहने एक बाए ,शान व शौकत और बैठी है। मुझे आगे बुलाया ,मैं अदब से आगे गया और तख़्त के पाए को बोसा दिया ,फिर उसका दामन पकड़ लिया। उसने मेरा अहवाल पूछा। मैंने उसी तरह जिस तौर से मलका ने तालीम कर दिया था ,ज़ाहिर कर दिया।
सुन कर बोली की क्या मुस्लमान अपनी स्त्रियों को ओझल में रखते है ? मैंने कहा : तुम्हारे बच्चो की खैर हो यह हमारी रस्मे क़दीम (पुरानी रस्म) है। बोली की तेरा अच्छा मज़हब है। मैं अभी हुक्म करती हु की शाह बन्दर तेरी जोरू आन कर हाज़िर होता है। और उस गेदी को ऐसी सियासत करू की दीगर ऐसी हरकत न करे और सबके कान खड़े हो और डरे। अपने लोगो से पूछने लगी की शाह बन्दर कौन है ?उसकी यह मजाल हुई की बिगानी चिरया को बा ज़ोर छीन लेता है ? लोगो ने कहा फलाना शख्स है। यह सुन कर ऊन दोनों लड़को को ,जो पास बैठे थे फ़रमाया की जल्दी उस मांस को साथ लेकर बादशाह के पास जाओ और कहो की माता फरमाती है की हुक्म बड़े बुत का यह है की शाह बन्दर आदमियों पर ज़ोर ज़ियादती करता है ,चुनांचा उस ग़रीब की औरत छीन लिया है। जल्द उस गुमराह के माल का पीछा कर कर इस तुर्क के की हमारा मंज़ूर नज़र है हवाले कर। नहीं तो आज रात को सातत्यानास होगा और हमारे ग़ज़ब में पड़ेगा। वे दोनों बच्चे उठ कर मंडल से बाहर आये और सवार हुए ,सब पिंड संख बजाते और आरती गाते जिलों में हो लिए।
गरज़ वहा के बड़े छोटे जहा उन लड़को का पाव पड़ता था ,वहा की मिटटी मुबारक समझ कर उठा लेते और आँखों से लगाते। उसी तरह बादशाह के क़िले तक गए। बादशाह को खबर हुई ,नंगे पाव इस्तेकबाल के खातिर निकल आया और उनको बड़े मान से ले जा कर अपने तख़्त पर बिठाया और पूछा : आज कैसे तशरीफ़ लाना हुआ। उन दोनों ब्राह्मण बच्चो ने ,माँ की तरफ जो कुछ सुन आये थे कहा। और बड़े बुत की खफ़गी से डराया।
बादशाह ने सुनते ही फ़रमाया ; बहुत खूब। और अपने नौकरो को हुक्म दिया की जाए और शाह बदंर को बा हिफाज़त उस औरत के जल्द हुज़ूर में हाज़िर करे तो मैं क़ुसूर उसके तजवीज़ करके सजा दूँ। यह सुन कर मैं अपने दिल में घबराया की यह बात तो अच्छी न हुई। अगर शाह बन्दर के साथ मलका को भी लाये तो पर्दा फाश होगा और मेरा क्या अहवाल होगा ? दिल में निहायत खौफ ज़दा हो कर खुदा की तरफ रुजू की ,लेकिन मेरे मुंह पर हवाईया उड़ने लगीं। और बदन कंपनी लगा ,लड़को ने यह मेरा रंग देख कर ,शायद दरयाफ्त किया की यह हुक्म इस की मर्ज़ी के मुआफ़िक न हुआ है। वही खफा हो कर उठे और और बादशाह को झड़क कर बोले : ए मर्दक ! तू दीवाना हुआ है जो फार्मबरदारी से बुत की निकला और हमारे बचपन को झूठ समझा ,जो दोनों को बुलवा कर तहक़ीक़ किया चाहता है ? अब खबरदार ! तो ग़जब में बड़े बुत के पड़ा ,हमने तुझे हुक्म पंहुचा दिया ,अब तू जान और बड़ा बुत जाने।
उसके कहने से
बादशाह की अजब हालत हुई की हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया और सर से पाव तक कांप रहा था मिन्नत
करके मनाने लगा। यह दोनों हरगिज़ न बैठे लेकिन खड़े रहे। इसमें जितने अमीर उमरा वहा हाज़िर
थे एक मुंह होकर बुराई शाह बनदर गाह की करने
लगे की वह ऐसा ही हराम ज़ादा बदकार और पापी है। ऐसी ऐसी हरकते करता है की हुज़ूर में
बादशाह के क्या क्या अर्ज़ करे ? जो कुछ ब्राह्मणो की माता ने कहला भेजा है दुरुस्त
है इस वास्ते की हुक्म बड़े बुत का है यह दरोग
क्यू होगा ? बादशाह ने जब सब की ज़बानी एक ही
बात सुनी अपने कहने से बहुत खजल और नदीम हुआ। जल्द एक अच्छा कपड़ा मुझे दी। और हुक्म नामा अपने हाथ से लिख ,उसपर दस्ती मुहर कर कर ,मेरे हवाले किया। और एक रुका
(कागज का टुकड़ा ) मादर ब्रह्मणा को लिखा और जवाहर अशर्फियों के ख्वान लड़को के रु बा रु पेश कश रख कर रुखसत किया। मैं ख़ुशी बा ख़ुशी बुतखाने
में आया और उस बुढ़िया के पास गया।
बादशाह का जो खत आया था उसका मज़मून यह था : अलक़ाब के बाद बंदगी ,अज्ज़ व नियाज़ लिख का लिखा था की मुआफ़िक़ हुक्म हुज़ूर के इस मर्द मुस्लमान को खिदमत शाह बन्दर की मुक़र्रर हुई और चीज़े दी गयी। अब यह उसके क़त्ल करने का मुख़्तार है. और सारा माल व असबाब उसका इस तर्क हुआ जो चाहे सो करे। उम्मीद वार हु की मेरी गलती माफ़ हो। ब्राह्मणो की माँ ने खुश हो कर फ़रमाया की नौबतखाने में बुतखाने की नौबत बजे। और पांच सौ सिपाही बरक़ंदाज़ जो माल बाँधी कोड़ी मारे ,मुसलाह मेरे हम राह कर दिए। और हुक्म किया की बन्दर में जाकर शाह बंदर को दस्तगीर करके इस मुस्लमान के हवाले करे। जिस तरह के अज़ाब से उसका जी चाहे उसे मारे। और खबरदार ! सिवाए इस अज़ीज़ के कोई महल सिरा में दाखिल न होए। और उसका माल व ख़ज़ाने को अमानत उसके सुपुर्द कर दे। जब यह बा ख़ुशी रुखसत करे ,रसीद और साफी नामा उससे लेकर फिर आये। और एक सिरे पाव बुत बुज़ुर्ग की सरकार से मेरे लिए दे कर सवार करवा कर विदा किया।
जब मैं बन्दर में पंहुचा एक आदमी ने बढ़ कर शाह बंदर
को खबर की। वह हैरान सा बैठा था की मैं जा पंहुचा। गुस्सा तो दिल में भर ही रहा था ,देखते ही शाह बन्दर को
तलवार खींच कर ऐसी गर्दन में लगाई की उसका सर अलग
भुट्टा सा उड़ गया। और वहा के गुमाश्ते ,खज़ांची दरोगो को पकड़वा कर सब दफ्तर ज़ब्त
किये। और मैं महल में दाखिल हुआ। मलका से मुलाक़ात
की ,आपस में गले लग कर रोये और शुक्र खुदा का किया। मैंने उसके ,उसने मेरे आंसू पोछे।
फिर बाहर मसनद पर बैठ कर अहल कारो को चीज़े दी और अपनी अपनी ख़िदमतो पर सबको बहाल किया।
नौकर और गुलामो को सरफ़राज़ी दी। वह लोग जो मंडप से मेरे साथ खड़े थे ,हर एक को इनाम व बख्शीश दे कर ,और उनके जमादार रिसाले दार को जोड़े
पहना कर रुखसत किया। और जवाहर बेश क़ीमत और
थान नूर बाफ़ी की नज़र की खातिर और हर एक उमराओ के दर्जा बा दर्जा और पांडियन के लिए
ो सब पंडो के तक़सीम करने की खातिर अपने साथ ले कर ,एक हफ्ते बाद बुत कदे में आया और
उस माता के आगे बा तरीक़ भेंट रखा।
उसने एक और खिलअत सरफ़राज़ी की मुझे बख्शी और ख़िताब दिया। फिर बादशाह के दरबार में पेशकश गुज़ारनी। और जो जो ज़ुल्म व फसाद शाह बन्दर ने ईजाद किया था ,उसके रोकने की खातिर अर्ज़ की। इस सबब से बादशाह और अमीर ,सौदागर सब मुझसे राज़ी हुए। बहुत नवाज़िश मुझ पर फ़रमाई और घोड़े देकर मुनसिब जागीर इनायत की और आबरू हुरमत बख्शी। जब बादशाह के हुज़ूर से बाहर आया ,शागिर्द पेशो को और अहल कारो को इतना कुछ देकर राज़ी किया की सब मेरा कलमा पढ़ने लगे। गरज़ मैं निहायत चैन व आराम से उस मुल्क में मलका से अकद बाँध कर रहने लगा ,और खुदा की बंदगी करने लगा। मेरे इंसाफ के ज़रिये पर सब खुश थे। महीने में एक बार बुतखाने में और बादशाह के हुज़ूर आता जाता। बादशाह रोज़ बा रोज़ सरफ़राज़ी फरमाता।
आखिर मुसाहेबात में मुझे दाखिल किया। मेरी बे सलाह कोई काम न करना। निहायत बे फ़िक्री से ज़िन्दगी गुज़रने लगी। मगर खुदा ही जानता है अक्सर अंदेशा उन दोनों भाईयो का दिल में आता की वे कहा होंगे और किस तरह होंगे ! बाद मुद्दत दो बरस के एक काफला सौदागरों का मुल्क ज़ेर बाद से उस बनदर में आया। वे सब इरादा अज्म का रखते थे। उन्होंने यह चाहा की राह से अपने मुल्क को जाये। वहा का यह क़ायदा था की कारवा ,आता उसका सरदार सौगात व तोहफा हर एक मुल्क का मेरे पास लाता और नज़र गुज़रता। दूसरे रोज़ में उसके मकान पर जाता महसूल उसके माल से लेता और परवानगी कोच की देता। इसी तरह वह सौदागर ज़ेर बाद के भी मेरी मुलाक़ात को आये और बे बहा पेशकश लाये। दूसरे दिन मैं उनके खेमे में गया। देखा तो दो आदमी फटे पुराने कपडे पहने गढरी सर पर उठा कर मेरे रु बा रु लाते है। बाद मला हिज़ा करके फिर उठा ले जाते है और बड़ी मेहनत और खिदमत कर रहे है।
मैंने खूब निझा कर देखा तो यही मेरे दोनों भाई है। उस वक़्त गैरत और हमीयत ने न चाहा की उनको इस तरह खिदमत गारी में देखु। जब अपने घर को चला ,आदमियों को कहा की उन दोनों शख्सों को लिए आओ। जब उनको लाये ,फिर लिबास व पोशाक बनवा दी ,और अपने पास रखा। इन बद्ज़ातो ने फिर मेरे मारने का मंसूबा कर कर एक रोज़ आधी रात में सब को ग़ाफ़िल पा कर चोट्टो की तरह मेरे सरहाने आ पहुंचे। मैंने अपनी जान के डर से चौकी दारो को दरवाज़े पर रखा था और यह कुत्ता वफादार मेरी चारपाई की पट्टी तले सोता था। जो उन्होंने तलवारे मियान से खींचे ,पहले कुत्ते ने भोंक कर उन पर हमला किया। उसकी आवाज़ से सब जाग पड़े। मैं भी बिलबिला कर चौंका। आदमियों ने उनको पकड़ा। मालूम हुआ की आप ही है। सब लानते देने लगे की बावजूद इस खातिर दारी के यह क्या हरकत उनसे ज़हूर में आयी।
बादशाह सलामत
! तब तो मैं भी डरा। मिस्ल मशहूर है : एक खता ,दो खता ,तीसरी खता मदर बा खता। दिल में
यही सलाह ठहरी की अब उनको बंदी करू। लेकिन
अगर बंदी खाने में रखु तो उनका कौन खबर गीरा रहेगा ? भूक पियास से मर जायेंगे। या कोई और स्वांग लाएंगे। इस वास्ते क़ुफ़स में रखा है की हमेशा मेरी
नज़रो के तले रहे तो मेरी खातिर जमा रहे। मुबादा
आँखों से ओझल हो कर कुछ और मुकर करे और उस कुत्ते की इज़्ज़त और हुरमत ,उसकी नमक हलाली और वफादारी के सबब है। सुभहान अल्लाह
! आदमी बेवफा ,बदतर हैवान बा वफ़ा से है। मेरी
यह सरगुज़िश्त थी जो हुज़ूर में अर्ज़ की ,अब ख़्वाह क़त्ल फरमाइए या जान बख्शी कीजिये
,हुक्म बादशाह का है।
मैंने सुन कर ,उस जवान बा ईमान पर आफरीन की और कहा की तेरी मुरव्वत में कुछ खलल नहीं और उनकी बे हयाई और हर मजदगी में हरगिज़ क़ुसूर नहीं। सच है : कुत्ते की दुम को बारह बरस गाड़ो तो भी टेढ़ी रहे। उसके बाद मैंने हक़ीक़त इन बारहो लाल की की उस कुत्ते के पट्ठे में थे। पूछी ख्वाजा बोला की बादशाह की सद व बीस्त साल की उम्र हो. इसी बन्दर में जहा में हाकिम था ,बाद तीन चार साल के एक रोज़ बाला खाने पर महल के ,की बुलंद था ,वास्ते सैर और तमाशे दरिया व सेहरा के मैं बैठा था और हर तरफ देखता था। नगाह एक तरफ जंगल में की वहा शाहराह न थी दो आदमी की तस्वीर सी नज़र आयी की चले जाते है। दूर बीन ले कर देखा तो अजब शक्ल की इंसान दिखाई दिए। चोबदारो को उनके बुलाने के वास्ते दौड़ाया।
जब वे आये ,मालूम हुआ की एक औरत और एक मर्द है। रंडी को महल सिरा में मलका के पास भेज दिया ,और मर्दो को रु बा रु बुलाया। देखा तो एक जवान बीस बाईस बरस का ,दाढ़ी मूँछ आगाज़ है। लेकिन धुप की गर्मी से उसके चेहरे का रंग काला तवे का सा हो रहा है। और सर के बाल और हाथो के नाखून बढ़ कर ,बिन मांस की सूरत बन रहा है। और एक लड़का तीन चार बरस का काँधे पर। और दो आस्तीन कुर्ते की भरी हुई ,हीकल की तरह गले में डाले। अजब सूरत और अजब हरकत उसकी देखि। मैंने निहायत हैरान हो कर पूछा :ए अज़ीज़ ! तू कौन है और किस मुल्क का बाशिंदा है और यह क्या तेरी हालत है ?वह जवान बे इख़्तियार रोने लगा और वह हमयानी खोल कर मेरे आगे ज़मीन पर रखी और बोला : वास्ते खुदा के कुछ खाने को दो। मुद्दत से घास और बिनास पत्तिया खाता चला आता हु ,एक ज़रा ताक़त मुझमें बाक़ी न रही ,वही नान व कबाब और शराब मैंने मंगवा दी वह खाने लगा।
इतने में ख्वाजा सिरा महल से कई थैलिया और उसके क़बीले के पास से ले आया। मैंने उन सब को खुलवाया .हर एक क़िस्म के जवाहर देखे की एक एक दाना उसका खराज सल्तनत का कहा चाहिए। एक से एक अनमोल डोल और तोल में और आबदारी। और उनकी छूत पड़ने से सारा मकान बो क़ल्मो हो गया। जब उसने टुकड़ा खाया और एक जाम दारु का पिया और दम लिया हवास बजा हुए। तब मैंने पूछा : ये पत्त्थर तुझे कहा हाथ लगे ?जवाब दिया की मेरा वतन पैदाइश आज़र बाईजान है लड़कपन में घर बार माँ बाप से जुदा हो कर बहुत सख्तिया खींची और एक मुद्दत तक मैं ज़िंदा दरगोर था। और कई बार मलकलमौत से बचा हु। मैंने कहा : ए मर्द आदमी ! तफ्सील से कह तो मालूम हो। तब वह अपना अहवाल बयां करने लगा की मेरा बाप सौदागर पेशा था। हमेशा सफर हिंदुस्तान व रुम ,चीन व खता व फरंग का करता। जब मैं दस बरस का हुआ ,बाप हिंदुस्तान को चला। मुझे अपने साथ ले जाने को चाहा। हर चंद माँ ने खाला ,मुमानी ,फूफी ने कहा की अभी यह लड़का है ,लायक सफर के नहीं हुआ। बाप ने न माना और कहा की मैं बूढ़ा हुआ ,अगर यह मेरे रु बा रु तरबियत न होगा तो यह हसरत गोर में ले जाऊंगा .मर्द बच्चा है , अब न सीखेगा तो कब सीखेगा ?
यह कह कर मुझे खवाह मखाह साथ लिया और रवाना हुआ। खैर व आफ़ियत से राह कटी। जब हिन्दुस्तान पहुंचे कुछ चीज़े वहा बेचीं और वहा की सौगात लेकर ज़ेर बाद के मुल्क को गए। यह भी सफर बा खूबी हुआ। वहा से भी खरीद फरोख्त करके जहाज़ पर सवार हुए की जल्दी वतन में पहुंचे। एक महीने बाद एक रोज़ आंधी और तूफ़ान आया और बारिश मूसलधार बरसने लगा। सारा ज़मीन वा आसमान धुआँ धार हो गया। और तिपवार जहाज़ की टूट गयी। लोग सर पीटने लगे। दस दिन तक हुआ पोर मौज जिधर चाहती थी लिए जाती थी। ग्यारहै रोज़ एक पहाड़ से टक्कर खा कर जहाज़ पुर्ज़े पुर्ज़े हो गया। न मालूम हुआ की बाप और नौकर चाकर और असबाब कहा गया ?
मैंने अपने एक तख्ते पर देखा। सह शबाना रोज़ वह बेडा बे इख़्तियार चला गया ,चौथे दिन किनारे पर जा लगा। मुझमे फ़क़त जान बाक़ी थी। उस पर से उतर कर घुटनियों चल कर बारे किसी न किसी तरह ज़मीन पर पंहुचा। दूर से खेत नज़र आये और बहुत से आदमी वहा जमा थे ,लेकिन सब सियाह फाम और नंगे मादर ज़ाद। मुझसे कुछ बोले लेकिन मैंने उनकी ज़बान न समझी। वह खेत चनो का था। वह आदमी आग का अलाव जला कर बूंटो के होले करते थे और खाते थे। मुझे भी इशारात करने लगे की तू भी खा। मैंने भी एक मुठी उखाड़ कर भुने और फांकने लगा। थोड़ा सा पानी पी कर एक गोशे में सो रहा।
बाद देर के जब जागा ,उनमे से एक शख्स मेरे नज़दीक आया और राह दिखाने लगा। मैंने थोड़े से चने उखेड़ लिए और उस राह पर चला। एक मैदान था गोया सेहराये क़यामत का नमूना कहना चाहिए। यही बूंट खाता हुआ चला जाता था .बाद चार दिन के एक क़िला नज़र आया। जब पास गया तो एक कोट देखा बहुत बुलंद तमाम पत्थर का। और हर एक उलंग उसकी दो दो कोस की। और दरवाज़ा एक संग तराशा हुआ। एक ताला बड़ा जड़ा था लेकिन वहा इंसान का निशान नज़र न पड़ा। वहा से आगे चला। एक टीला देखा की उसकी ख़ाक सुरमे के रंग सियाह थे। जब तल के पार हुआ तो एक शहर नज़र पड़ा बहुत बड़ा गर्द शहर पनाह और जा बजा बुर्ज। एक तरफ शहर के दरिया था बड़े पाट का। जाते जाते दरवाज़े पर गया और बिस्मिल्लाह कह कर क़दम अंदर रखा। एक शख्स को देखा पोशाक अहल फरंग की पहने हुए कुर्सी पर बैठा है। जब उसने मुझे अजनबी मुसाफिर देखा और मेरे मुंह से बिस्मिल्लाह ,सुनी पुकारा की आगे। आओ मैंने जाकर सलाम किया। निहायत मेहरबानी से सलाम का जवाब दिया। तुरंत मेज़ पर पाव रोटी मस्का और मुर्ग का कबाब और शराब रख कर कहा : पेट भर कर खाओ। मैंने थोड़ा सा खाया और पिया और बे खबर हो कर सोया। जब रात हो गयी तब आँख खुली ,हाथ मुंह धोया। फिर मुझे खाना खिलाया और कहा : ए बेटा !अपना अहवाल कह। जो कुछ मुझ पर गुज़रा था ,सब कह सुनाया। तब बोला की यहाँ तू क्यू आया है ? मैंने कहा : शायद तू दीवाना है ! मैंने बाद मुद्दत की मेहनत के अब बस्ती की सूरत देखी है। खुदा ने यहाँ तलक पहुंचाया और तू कहता है क्यू आया ?कहने लगा : अब तू आराम कर ,कल जो कहना होगा कहूंगा।
जब सुबह हुई तो बोला : कोठरी में फावड़ा और छन्नी पड़ा है ,बाहर ले आ। मैंने दिल में कहा खुदा जाने रोटी खिला कर क्या मेहनत मुझसे करवाएगा। लाचार वह सब निकाल कर उसके रु बा रु लाया। तब उसने फ़रमाया की उस टीले पर जा और एक गज़ के मुताबिक़ घढ़ा खोद। वहा से जो कुछ निकले इस छलनी में छान ,जो न छन सके इस तोबड़े में भर कर मेरे पास ले आ। मैं वो सब चीज़े लेकर वहा गया और उतना ही खोद कर छान कर तोबड़े में डाला। देखा तो सब जवाहर रंग बी रंग के थे। उनकी जोत से आँखे चुंधिया गयी। उसी तरह थैले के मुंह भर कर उस अज़ीज़ के पास ले गया। देख कर बोला जो इसमें भरा है तू ले और यहाँ से जा ,की तेरा रहना इस शहर में खूब नहीं। मैंने जवाब दिया की साहब ने अपनी जानिब में बड़ी मेहरबानी की इतना कुछ कंकर पत्थर दिया , लेकिन मेरे किस काम का ? जब भूका होऊंगा ,तो न इनको चबा सकूंगा ,न पेट भरेगा। पस अगर वह भी दो। तो मेरे किस काम आये ?वह मर्द हंसा और कहने लगा की मुझको तुझ पर अफ़सोस आता है की तू भी हमारी मानिंद मुल्क ऐ अज्म का है। इसलिए मैं मना करता हु ,नहीं तो जान। अगर ख़्वाह न ख़्वाह तेरा यही क़स्द है की शहर में जाऊं तो मेरी अंगूंठी लेते जा। जब बाजार के चौक में जाना तो एक शख्स जो सफ़ेद रेश वहा बैठा होगा। और उसक सूरत शक्ल मुझसे बहुत मिलती है ,मेरा बड़ा भाई है। उसको छाप देना ,तो वह तेरी खबर गीरी करेगा। और जो कुछ वो कहे उसी के मुवाफ़िक़ काम करना। नहीं तो मुफ्त मारा जायेगा। और मेरा हुक्म यही तक है। शहर में मेरा दाखिल नहीं। मैंने वह खात्म उससे ली और सलाम कर कर रुखसत हुआ ,शहर में गया बहुत खासा शहर देखा कुचा व बाजार साफ और मर्द व औरत बे हिजाब आपस में खरीद व फरोख्त करते। सब खुश लिबास .मैं सैर करता और तमाशा देखता जब चौक के चौराहे में पंहुचा ऐसा हुजूम था की थाली फेंकते तो आदमियों के सर पर चली जाये। खलकत का यह ठठ बंध रहा था की आदमी को राह चलना मुश्किल था। जब कुछ भीड़ हटी मैं भी धक्काम धक्की आगे गया। बारे ,उस अज़ीज़ को देखा की एक चौकी पर बैठा है और एक जड़ाऊ चुमाक रु बा रु धरा है। मैंने जाकर सलाम किया और वह मुहर दी। नज़र गज़ब से मेरी तरफ देखा और बोला : क्यू तू यहाँ आया है और अपने आपको बला में डाला ? मगर मेरे बेवक़ूफ़ भाई ने तुझे मना न किया था ?
मैंने कहा : उन्होंने तो कहा लेकिन मैंने नहीं माना। और तमाम कैफियत अपनी शुरू से आखिर तक कहा सुनायी। वह शख्स उठा और मुझे साथ लेकर अपने घर की तरफ चला। उसका मकान बादशाहो का सा देखने में आया और बहुत से नौकर चाकर उसके थे। जब उनके साथ बैठा एक शख्स बोला ए फ़रज़न्द ! यह क्या तूने हिमाक़त की अपने पाव से गोर में आया ? कोई भी इस कम्बख्त तिलस्माती शहर में आता है ? मैंने कहा : मैं अपना अहवाल पेश्तर कह चूका हूँ ,अब तो क़िस्मत ले आयी। लेकिन शफ़क़त फरमा कर यहाँ की राह व रस्म से खबर कीजिये ,तो मालूम करो की इस वास्ते तुमने और तुम्हारे भाई ने मुझे मना किया। तब वह जवा मर्द बोला की बादशाह और तमाम रईस इस शहर के रानदे है। अजब तरह का उनका रवैया और मज़हब है। यहाँ बुत खाने में एक बुत है की शैतान उसके पेट में से नाम और ज़ात और दींन हर किसी का बयांन करता है पस जो कोई गरीब मुसाफिर आता है बादशाह को खबर होती है। उसे मंडप पे ले जाता है और बुत को सजदा करवाता है। अगर दंडवत की तो बेहतर नहीं , बेचारे को दरिया में डुबवा देता है। अगर वह चाहे की दरिया से निकल कर भागे तो आलात और गुस्से के उसके लम्बे हो जाते है ऐसे की ज़मीन में घसीटते है। ऐसा कुछ तिलिस्म इस शहर में बनाया है। मुझको तेरी जवानी पर रहम आता है। मगर तेरी खातिर एक तदबीर करता हु की भला कोई दिन तो तू जीता रहे और इस अज़ाब से बचे।
मैंने पूछा : वह क्या सूरत तजवीज़ की है ? इरशाद हो। तुझे क्या करू और वज़ीर की लड़की तेरे खातिर बियाह लाऊँ .मैंने जवाब दिया की वज़ीर अपनी बेटी मुझसे मुफ़लिस को क्यू देगा ?मगर जब उनका दीन क़ुबूल करू ?सो यह मुझसे न सकेगा। कहने लगा : इस शहर की यह रस्म है की जो कोई इस बुत को सजदा करे ,अगर फ़क़ीर हो और बादशाह की बेटी मांगे तो उसकी ख़ुशी की खातिर हवाले करे और उसे रंजीदा न करे। और मेरा भी बादशाह के नज़दीक एतबार है और अज़ीज़ रखता है लेहाज़ा सब अरकान और अकाबिर यहाँ के मेरी क़द्र करते है। और दरमियान एक हफ्ते के दो दिन बुत खाने में ज़ियारत को जाते है और इबादत बजा लाते है लेहाज़ा सब जमा होंगे , जाऊंगा।
यह कह कर ,खिला पीला कर सुला रखा। जब सुबह हुई मुझे साथ लेकर बुतखाने की तरफ चला। वहा जाकर जो देखा तो आदमी आते जाते है और परस्तिश करते है। बादशाह और अमीर बुत के सामने पंडों के पास सर नंगे किये अदब से दो जानो बैठे थे। और लड़किया और लड़के खूब सूरत जैसे हूर व गिलमा चारो तरफ सफ बांधे खड़े थे .तब वह अज़ीज़ मुझसे मुखातिब हुआ की अब मैं जो कहु सो करे. क़ुबूल किया की जो फरमाओ सो बजा लाऊँ। बोला की पहले बादशाह के हाथ पाओ को बोसा दे,बाद उसके वज़ीर का दामन पकड़। मैंने वैसा ही किया। बादशाह ने पूछा की यह कौन है और क्या कहता है ?उस मर्द ने कहा : यह जवान मेरे रिश्ते में है बादशाह की क़दम बोसी की आरज़ू में दूर से आया है ,इस उम्मीद से की वज़ीर इसको ग़ुलामी में सर बुलंद करे अगर हुक्म बुत कला का और मर्ज़ी हुज़ूर की होए। बादशाह ने पूछा की हमारा मज़हब और दीन आईंन क़ुबूल करेगा तो मुबारक है। वही बुतखाने का नक़्क़ार खाना बजने लगा और भारी जोड़े मुझे पहनाये और एक रस्सी मेरे गले में डाल कर खींचे हुए। बुत के सिंघासन के आगे ले जाकर सजदा करवा कर खड़ा किया।
बुत से आवाज़ निकली कि ए ख्वाजा ज़ादे ! खूब हुआ की तू हमारे बंदगी में आया अब हमारी रहमत और इनायत का उमीदवार रह। यह सब सुन कर सबने सजदा किया और ज़मीन में लोटने लगे और पुकारे :धन है क्यू न हो ,तुम ऐसे ही ठाकुर हो। जब शाम हुई बादशाह और वज़ीर सवार हो कर वज़ीर के महल में दाखिल हुए। और वज़ईर की बेटी को अपने तौर की रीत रस्म करके मरे हवाले किया ,और बहुत सा दान दहेज़ दिया। और बहुत मन्नत वार हुए की बा हुक्म बड़े बुत के इसे तुम्हारी खिदमत में दिया है। एक मकान में हम दोनों को रखा। उस नाज़नीन को जो मैंने देखा तो हकीकत में उसका आलम परी का सा था नख सिख से दुरुस्त। जो जो खुबिया पद्मिनी की सुनी जाती है सो सब उसमे मौजूद थीं। बा फ़राग़त तमाम मैंने सोहबत की और खत उठाया। सुबह को ग़ुस्ल करके बादशाह के मुजरे में हाज़िर हुआ। बादशाह ने खिदमत दमादी की इनायत की। और हुक्म फ़रमाया की हमेशा दरबार में हाज़िर रहा करे। आखिर को बाद चंद रोज़ के बादशाह की मुसाहेबात में दाखिल हुआ।
बादशाह मेरी सोहबत से निहायत महफूज़ होते और अक्सर इनआम इनायत करते अगरचे दुनिया के माल में अमीर था ,इस वास्ते की मेरे क़बीले के पास इतना नक़द व जींस और जवाहर था की जिसकी हद्द व निहायत न थी। दो साल तक बहुत ऐश व आराम से गुज़री। अचानक वज़ीर ज़ादी को पेट रहा। जब सत्वँसा हुआ और अनगिना महीना गुज़र कर पुरे दिन हुए। पीरे लगी। दायी जनाई आयी तो मरा लड़का पेट में से निकला। उसका बिस जच्चा को चढ़ा .वह भी मर गयी। मैं मारे ग़म के दीवाना हो गया की यह क्या आफत टूटी ! उसके सरहाने बैठा रोता था। एक बारगी रोने की आवाज़ सारे महल में बुलंद हुई और चारो तरफ से औरते आने लगी ,जो आती थी ,एक दो हटड़ मेरे सर मारती थी और अपनी कस व कुन को नंगा करके मेरे मुंह के मुक़ाबिल खड़ी रहती। और रोना शुरू करती। इतनी औरते इकठा हुई की उनके बीच मैं छुप गया। नज़दीक था की जान निकल जाये।
इतने में किसी ने पीछे से गिरेहबान मेरा खींच कर घसीटा। देखा तो वही मर्द अजमी है ,जिस ने मुझे बियाहा था। कहने लगा की अहमक़ ! तू किस लिए रोता है ? मैंने कहा : ए ज़ालिम ! यह तूने क्या बात कही ? मेरे बादशाहत लुट गयी आराम खाना दारी का गया गुज़रा तू कहता है क्यू ग़म करता है ! वह अज़ीज़ मुस्कुरा कर बोला की अब अपनी मौत की खातिर रो। मैंने पहले ही तुझे ही कहा था की शायद इस शहर में तेरी अजल ले आयी है ,सो ही हुआ .अब सिवाए मरने के तेरी रिहाई नहीं। आखिर लोग मुझे पकड़ कर बुतखाने में ले गए। देखा तो बादशाह और उमरा और छत्ती*स फ़िरक़ा प्रजा वहा जमा है। और वज़ीर ज़ादी का माल अमवाल सब धरा है। जो चीज़ जिसका जी चाहता है ले लेता है और उसकी क़ीमत के रूपये धर देता है।
गरज़ सब असबाब नक़द रूपये हुए। उन रुपयों का जवाहर खरीदा गया और एक सन्दूकचे में बंद किया। और एक दूसरे संदूक में नान ,हलवा और गोश्त के कबाब और मेवा खुश्क व तर और खाने की चीज़े लेकर भरे। और लाश उस बीबी की एक संदूक में रख कर संदूक आज़ूक़े का एक ऊंट पर अरवा दिया। और मुझे सवार किया और संदूकचा जवाहर का मेरी बग़ल में दिया और सारे ब्राह्मण आगे आगे भजन करते संख बजाते चले। और पीछे एक खलकत मुबारक बादी कहती हुई साथ हो ली। इस तौर से उसी दरवाज़े से की मैं पहले रोज़ आया था शहर के बाहर निकला .जैसे ही दारोग़ा की नज़र मुझ पर पड़ी ,रोने लगा और बोला की ए कम्बख्त मेरी बात नहीं सुनी और इस शहर में जाकर मुफ्त अपनी जान दी। मेरा क़ुसूर नहीं मैंने मना किया था। उसने यह बात कही ,लेकिन मैं तो हक्का बक्का हो रहा था। न ज़बान यारी देती थी की जवाब दूँ ,न अवसान बजा थे की देखिये अंजाम मेरा क्या होता है ?